भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठकर प्रेम करना / कमलेश्वर साहू

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


ज्वालामुखी के मुहाने पर
बैठे हुए थे हम
बैठे हुए थे हम
आग ताप और लावा के ठीक ऊपर
जहां ठंडक थी
थी नमी
हम बैठे हुए थे
तो प्रेम भी था वहां
हमारे दिल धड़क रहे थे
मगर खामोशी भी थी
हम गा रहे थे
अपने समय का गीत
अपने लिए
प्रेम करते हुए
जिसमें प्रेम ही था
और जिसे
हम ही सुन रहे थे
हमारे प्रेम में
वही आग थी
वही ताप
वही लावा
जो ज्वालामुखी में
जिसके मुहाने पर
बैठे हुए थे हम
हम अपने भीतर की आग
ताप और लावा से परेशान थे
परेशान इसकदर कि बेचैन
बेचैन इतना
कि डर की हद तक
जितना डर ज्वालामुखी के
फट जाने से नहीं था
उससे कहीं ज्यादा डर
हमारे प्रेम से था दुनिया को
दुनिया हमें पागल करार देकर
जीवन से बहिष्कृत कर
इतिहास में ढकेल देना चाहती थी
हम इतिहास में नहीं
जीवन में रहना चाहते थे
ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठकर प्रेम करना
हमारा विद्रोह नहीं था साथियो
मगर माना जा रहा था
विद्रोह ही !