भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज्वाला में जल जाना ही / केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’
Kavita Kosh से
धूमिल-प्रभा-पटी पर अंकित
तेरी स्मृति की रेखा!
मधु-प्रमाद में भौंरों के
तेरा पागलपन देखा!
गली-गली फिरता हूं लेकर
मादकता का सौदा!
इंगित पर बिक जाने का
लिख तो दे ज़रा मसौदा!
मेरे उर की कसक हाय!
तेरे गीतों का स्वर हो!
ज्वाला में जल जाना ही
मेरे जीवन का वर हो!
अपने कोमल-अंधकार के
सघन-आवरण में तत्काल;
करुण! छिपा लेना तुम मेरी
दारुण-पीड़ाओं की ज्वाल!
आह! देखना, उसे न चंचल
कर दे क्रूर-विश्व का भार!
कहीं न उमड़ पड़े मेरे इस
प्रलय-भरे जीवन का ज्वार!
अंधकार रहने देना
मत जाल किरण का फैलाना;
मेरी सजल-वेदनाओं को
मत अनंत से बिछुड़ाना!