झंझा(कविता) / विमल राजस्थानी
इन विद्रोहों की झंझा से तुम न डरो ॠतुराज
इन तूफानों के झोकों से भय न करो ॠतुराज.
छवि का घूँघट उलट न आई यह विखेरने लाज
चीखों में न बदलने मीठी कुहू की आवाज
आई यह न हिलाने फल-फूलों से लदे निकुंज
आई यह न गिराने तुम पर असमय पतझर-गाज.
यह आई झकझोर जलाने कायरता का बाग
यह आई घर-घर सुलगाने अमर-क्रांति की आग
यह झंझा जिसके पीछे-पीछे लाखों तूफान
यह फूँकेगी भारत के जिन्दे-मुर्दों में प्राण.
जंजीरों में जो युग-युग से पाले आ रहे लाल
रूपों के जादू का जिन पर पड़ा सुनहला जाल
अंगूरी में डूब, युवतियों की बाहों में झूल
जो झुक-झुक चूमते बुजदिली के चरणों की धूल.
यह आई करने उनका ही कुंकुम-चर्तित भाल
यह आई पहिनाने उनको अंगारों की भाल
यह फूँकेगी उनकी नस-नस में विप्लव की ज्वाल
उछल चलेगें बलि-वेदी की ओर देश के लाल.
उन्हें न रोक सकेंगे रूपों के जादू के जाल
उन्हें न बांध सकेंगे काली अलकों के छवि-व्याल
वे तो हँस माँ के चरणों पर वारेंगे तन-प्राण
उनके बली-प्रदान पर निश्चय चौकेंगे भगवान.
लायेंगे वे छीन पुनः अपना हीरों का ताज
अपना सोने का सिंहासन, अपना स्वर्ण-स्वराज.