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झंझा का गान / राधेश्याम ‘प्रवासी’

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मैं सागर हूँ नहीं कूल की बाहें जिसको बाँध ले,
उर्मिल वीणा पर बनजे वाला झंझा का गान हूँ!

यह नभ पर घनघोर घटायें घिरती है तो घिरने दो,
बहकी - बहकी यदि चपलायें फिरती हैं तो फिरने दो,
मैं अम्बर हूँ नहीं दिशाओं का बन्दी बन रह जाऊँ,
मुक्ति पंथ पर बहने वाला मैं सशक्त पवमान हूँ!

साहिल की चर्चा तज कर, मैंने केवल बढ़ना सीखा,
लहरों की गणना तज करके भँवरों से भिड़ना सीखा,
शिला-खण्ड वह नहीं प्रवाहों में पड़ कर जो बह जाये,
टूट न जाये वह निश्चय की एक अडिग चट्टान हँू!

दृढ़ संकल्प नहीं विचार परिवर्तन के है हाथ बिका,
दीवानों का क्या कर लेगी क्षणिक तृप्ति की मरीचिका,
उन्मादी वह नहीं जिसे जग की राहें भटका देंगी,
अपने पागलपन में भी मैं एक सजग इन्सान हूँ!