भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झंझा में दीप / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


आज तूफ़ानी निशा है, किस तरह दीपक जलेंगे !

मुक्त गति से दौड़ती है शून्य नभ में तीव्र झंझा,
शीर्ण पत्रों-सी बिखरती चीखती हत त्रास्त जनता,
क्योंकि भीषण ध्वंस करतीं बदलियाँ नभ में चली हैं,
क्योंकि गिरने को भयावह बिजलियाँ नभ में जली हैं,
मेघ छाये हैं प्रलय के, नाश करके ही टलेंगे !
:
आज जन-जन को जलाना है न, निज गृह दीप-माला,
आज तो होगी बुझानी सर्व-भक्षक विश्व-ज्वाला,
तम धुआँ छा प्रति दिशा में घिर गया गहरा भयंकर
युग-युगों का मूल्य संचित मिट रहा, रोदन भरा स्वर,
कर्ण-भेदी लाल अंगारे स्वयं फटकर चलेंगे !
:
एकता की ज्योति हो; जिससे मिले मधु स्नेह अविरल,
और तूफ़ानी घड़ी में जल सके लौ मुक्त चंचल,
शक्ति कोई भी न सकती फिर मिटा, चाहे सुदृढ़ हो,
विश्व का हिंसक प्रलयकारी भयंकर नाश गढ़ हो,
फिर नहीं इन आँधियों में दीप जीवन के बुझेंगे !