झण्डा / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी
जब विचार होते जाते हैं हल्का–हल्का
धीरे–धीरे भारी होता जाता है झण्डा
उतरते-उतरते सारे वस्त्र
बाक़ी है केवल खाल
कुख्यात सम्राट का नया पैहरन जैसा
निकलने के बाद सीने से
निष्ठा नाम का अमूर्त पदार्थ
पहले ही खो गया था
शौर्य और सौन्दर्य से बने हुए भूमिगत नाम
और भूमिगत हुए हैं तकिया से
वोल्यूम वन,
वोल्यूम टू....थ्री...फोर...
प्रगति प्रकाशन मास्को के महत्वपूर्ण दस्तावेज़
रहस्यमय शैली में
स्टार होटल के आँगन से ही खोया था
वहाँ तक पहुँचाया गया झोला
थे अभी तक झोले में
मानव जाति का अन्तरराष्ट्रीय गान
और सितारा जडि़त टोपी के नीचे
आजन्म मुस्कराकर न थकने वाले
जोशीले चे की बायोग्राफी
उसी के अन्दर थी मार्क करके रखी हुई
अवतार सिंह पाश की ‘सबसे खतरनाक’ कविता
और था ‘दास कैपिटल’
अचानक गायब हो कर झोला
भारी–भारी चीज़ खो जाने के बाद
फूल जैसे हल्के हुए हैं कामरेड
लेकिन किस चीज़ ने दबा रहा है इन दिनों?
किसका ऐंठन है यह?
झण्डे का?
ठीक इसी वक़्त
सोचमग्न हैं कामरेड
सौ–सौ टन के बोझ से भारी
जल्दी ही बदलना पड़ेगा यह झण्डा
और अंकित करना होगा नए झण्डे में
गुलाब या लिली फूल का चित्र।