भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झपटते हैं झपटने के लिए परवाज़ करते हैं / ख़ालिद महमूद
Kavita Kosh से
झपटते हैं झपटने के लिए परवाज़ करते हैं
कबूतर भी वही करने लगे जो बाज़ करते हैं
वही क़िस्से वही बातें के जो ग़म्माज़ करते हैं
तेरे हम-राज़ करते हैं मेरे दम-साज़ करते हैं
ब-सद हीले बहाने ज़ुल्म का दर बाज़ करते हैं
वही जाँ-बाज़ जिन पर हर घड़ी हम नाज़ करते हैं
ज़्यादा देखते हैं जब वो आँखें फेर लेते हैं
नज़र में रख रहे हों तो नज़र-अंदाज़ करते हैं
सताइश-घर के पंखों से हवा तो कम ही आती है
मगर चलते हैं जब ज़ालिम बहुत आवाज़ करते हैं
ज़माने भर को अपना राज़-दाँ करने की ठहरी है
तो बेहतर है चलो उसे शोख़ को हम-राज़ करते हैं
डराता है बहुत अंजाम-ए-नमरूदी मुझे ‘ख़ालिद’
ख़ुदा लहजे में जब बंदे सुख़न आगाज़ करते हैं