भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झर झर झाँपै बड़े दर दर ढ़ाँपै नापै / ग्वाल
Kavita Kosh से
झर झर झाँपै बड़े दर दर ढ़ाँपै नापै ,
तऊ काँपै थर थर बाजत बतीसी जाय ।
फेरि पसमीनन के चौहरे गलीचन पै ,
मखमली सौरि आछी सोऊ सरदी सी जाय ।
ग्वाल कवि कहै मृग मद के धुकाये धूम ,
ओढ़ि ओढ़ि छार भार आग हू छपी सी जाय ।
छाकै सुरा सीसाहू न सीसी पै मिटैगी कभू ,
जौँ लौ उकसी सी छाती छाती सो न मीसी जाय ।
ग्वाल का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।