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झलक तुम्हारी मैंने पाई सुख-दुख दोनों की सीमा पर / हरिवंशराय बच्चन
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झलक तुम्हारी मैंने पाई सुख-दुख दोनों की सीमा पर।
ललक गया मैं सुख की बाहों
में जब-जब उसने चुमकारा,
औ’ ललकारा जब-जब दुखने
कब मैं अपना पौरुष हारा;
आलिंगन में प्राण निकलते
खड्ग तले जीवन मिलता है;
झलक तुम्हारी मैंने पाई सुख-दुख दोनों की सीमा पर।
दुनिया की नीची सतहों पर
अलग-अलग सबकी परिभाषा;
हुआ न जिसका हास रुदनमय,
हुई न जिसकी आश निराशा,
वे छोटा-सा हृदय, परिधि भी
छोटी सी नयनों की लाए;
मेरा तो दम ही घुट जाता ऐसे दिल के बीच समाकर।
झलक तुम्हारी मैंने पाई सुख-दुख दोनों की सीमा पर।