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झाँकते हैं फिर नदी में पेड़ / धनंजय सिंह
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झाँकते हैं
फिर नदी में पेड़
पानी थरथराता है
यह
नुकीले पत्थरों का तल
काटता है धार को प्रतिपल
और
तट की बाँबियों को छेड़
फिर कोई संपेरा गुनगुनाता है
हर नदी का
शौक़ है घड़ियाल
कह न पातीं मछलियाँ वाचाल
पूछती है
एक काली भेड़
यह सूरज यहाँ क्यों रोज़ आता है