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झापरऽ माथऽ चाकरऽ पीठ / परमानंद ‘प्रेमी’

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सुखलोऽ, टटैलऽ पड़लऽ छी,
मनों में एके असरा लगैलें।
ऐथैं अखाड़ हम्में सरगद होबऽ,
इनरेवऽ क’ घरे ऐलें॥

असरा के बान्ध टूटलऽ जाय छ’,
फाटलऽ जाय छ’ सौंसे छतिया।
ताकिक’ टक-टक रात गुजारौं,
केकरा सुनाबौं दुखऽ के बतिया?

झापरऽ माथऽ चाकरऽ पीठ,
केना करौं तोरा बिनु सिंगार।
चारो-ओर उमड़ी-घुमड़ी रहलऽ छऽ
आबै छऽ कैन्ह’ नी योहो पार?

पवन निर्मोहिया क’ लाजऽ नैं लगै,
उड़ैल’ जाय छौं अपना साथें।
छटपट करै छी झुलसी-झुलसी,
एको बुन तेल नैं हमरा माथें?

कोन कसूर भेलऽ जे रुसलऽ जाय छऽ?
कटि टा रूकी क’ बतलाय द’?
ऐन्हऽ गलती कैहियो नें करबऽ
जरियो सा हमरा नभाय द’॥

लागै छ’ तोरा विनु सुनों-सुनों,
ऐंगन, घऽर आरो सौंसे डगरिया।
कुईयाँ, नदिया, पोखरो सुखलऽ,
कहाँ जायक’ भरौं गगरिया?

टक-टक ताकतें आँखो सुखी गेलऽ
सूखी गेलै ‘प्रेमी’ के निर्मल गछिया।
य’ह’ रं सुखय क’ मऽन जों छेल्हौं,
रहतिहऽ कुमारऽ रहलै जेना पछिया॥