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झिलमिलाते हुए आँसू भी अजब होते हैं / रम्ज़ आफ़ाक़ी

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झिलमिलाते हुए आँसू भी अजब होते हैं
शाम-ए-फ़ुर्क़त के ये जुगनू भी अजब होते हैं

ये अदा हुस्न की हम क्यूँ नज़र अंदाज़ करें
उस के बिखरे हुए गेसू भी अजब होते हैं

क़त्ल हो कोई तो काँप उठती है सारी दुनिया
दर्द-ए-इंसाँ के ये पहलू भी अजब होते हैं

किस को गीत अपने सुनाते हैं वहाँ क्या कहिए
नग़्मा-ख़्वानान-ए-लब-ए-जू भी अजब होते हैं

इस ख़राबी से तो मामूर है सारा आलम
ये फ़ासादात-ए-मन-ओ-तू भी अजब होते हैं

भाइयों के सितम-ओ-जौर को क्या तुम से कहूँ
‘रम्ज़’ ये क़ुव्वत-ए-बाज़ू भी अजब होते हैं