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झिलमिल दीप जला तारों के / तारादेवी पांडेय

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झिलमिल दीप जला तारों के, नभ में कर दी दीवाली;
उसी ज्योति में चली ढूँढ़ने, भर के आँसू की थाली।
छाया थी मधुवन की सुन्दर, हरी दूब की हरियाली;
मुग्ध दृष्टि से निरख रहा था, मतवाला हो वनमाली।

खोज रही थी वन उपवन में, हटा-हटाकर अँधियाली;
पूछ रही थी, नीरव मन से, अरे बता दो उजियाली।
हृदय टटोला, देखा क्या, हा! वीणा थी पर तार नहीं;
मँडराया था राग, किन्तु अब, पहली-सी झनकार नहीं।

छिन्न हृदय-तंत्री को लेकर, मैं सूने पथ पर आयी;
देखा संस्मृति चितवन से तब, उदासीनता है छायी।
सूने पथ में बिचर रही हूँ, ढँढ़ रही अतीत की धूल;
उस अतीत की सुमधुर स्मृति में, काँटे भी लगते हैं फूल।