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झील का ठहरा हुआ जल / माहेश्वर तिवारी
Kavita Kosh से
उंगलियों से कभी
हल्का-सा छुएँ भी तो
झील का ठहरा हुआ जल
काँप जाता है।
मछलियाँ बेचैन हो उठतीं
देखते ही हाथ की परछाइयाँ
एक कंकड़ फेंक कर देखो
काँप उठती हैं सभी गहराइयाँ
और उस पल झुका कन्धों पर क्षितिज के
हर लहर के साथ
बादल काँप जाता है।
जानते हैं हम
जब शुरू होता कभी
कँपकँपाहट से भरा यह गन्दुमी बिखराव
टूट जाता है अचानक बेतरह
एक झिल्ली की तरह पहना हुआ ठहराव
जिस तरह ख़ूंख़ार
आहट से सहमकर
सरसराहट भरा जंगल काँप जाता है।