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झील के तट / यतींद्रनाथ राही
Kavita Kosh से
यों सबेरे साँझ
एकाकी विचरना
अधर सूखी प्यास का
झरना बिखरना
और
लेकर लौट आना
अनभरे ही घट!
झील के ये तट
या कभी भर आँजुरी
आए चले पीकर
ज़िन्दगी मिलती नहीं है
यों कभी जीकर
रोज़ ऐसे ही मिल हैं
भीड़ के जमघट
झील के ये तट।
धर गयी कुछ मत्स्य-गन्धा लहर
आमन्त्रण
हो उठे पुलकित
मुरझते सूखते त्रण
साँझ के इस झुटपुटे में
एक उलझी लट
झील के ये तट
डूबकर
क्षण भर कभी
रसवन्त हो लेते
प्राप्ति के क्षण
कुछ अमोलक रत्न
खो लेते
एक पल भी तो
उठा होता
कोई घूँघट
झील के ये तट
15.11.2017