झील से प्यार करते हुए–1 / शरद कोकास
झील की ज़ुबान उग आई है 
झील ने मनाही दी है अपने पास बैठने की 
झील के मन में है ढेर सारी नफ़रत 
उन कंकरों के प्रति 
जो हलचल पैदा करते हैं 
उसकी ज़ाती ज़िन्दगी में 
झील की आँखें होतीं तो देखती शायद
मेरे हाथों में क़लम है कंकर नहीं
            
झील के कान उग आए हैं 
बातें सुनकर 
पास से गुज़रने वाले 
आदमक़द जानवरों की 
मेरे और झील के बीच उपजे
नाजायज़ प्रेम से 
वे ईर्ष्या करते होंगे 
वे चाहते होंगे 
कोई इल्ज़ाम मढ़ना
झील के निर्मल जल पर 
झील की सतह पर जमी है 
ख़ामोशी की काई 
झील नहीं जानती 
मै उसमें झाँक कर 
अपना चेहरा देखना चाहता हूँ 
बादलों के कहकहे 
मेरे भीतर जन्म दे रहे हैं 
एक नमकीन झील को 
आश्चर्य नहीं यदि मैं एक दिन
नमक के बड़े से पहाड़ में तब्दील हो जाऊँ ।
	
	