झील से प्यार करते हुए–2 / शरद कोकास

वेदना-सी गहराने लगती है जब
शाम की परछाईयाँ
सूरज खड़ा होता है
दफ़्तर की इमारत के बाहर
मुझे अँगूठा दिखाकर
भाग जाने को तत्पर

फ़ाइलें दुबक जाती हैं
दराज़ों की गोद में
बरामदा नज़र आता है
कर्फ़्यू लगे शहर की तरह

ट्यूबलाईटों के बन्द होते ही
फ़ाइलों पर जमी उदासी
टपक पड़ती है मेरे चेहरे पर

झील के पानी में होती है हलचल
झील पूछती है मुझसे
मेरी उदासी का सबब
मैं कह नहीं पाता झील से
आज बॉस ने मुझे ग़ाली दी है

मैं गुज़रता हूँ अपने भीतर की अन्धी सुरंग से
बड़बड़ाता हूँ चुभने वाले स्वप्नों में
कूद पड़ता हूँ विरोध के अलाव में
शापग्रस्त यक्ष की तरह
पालता हूँ तर्जनी और अँगूठे के बीच
लिखने से उपजे फफोलों को

झील रात भर नदी बनकर
मेरे भीतर बहती है
मै सुबह कविता की नाव बनाकर
छोड़ देता हूँ उसके शांत जल में
वैदिक काल से आती वर्जनाओं की हवा
झील के जल में हिलोरें पैदा करती है
डुबो देती है मेरी काग़ज़ की नाव


झील बेबस है
मुझसे प्रेम तो करती है
लेकिन हवाओं पर उसका कोई वश नहीं है ।

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