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झील से शहर है / प्रेमशंकर शुक्ल
Kavita Kosh से
अपनी झील के लिए
एक खिड़की खोले ही रहता है
शहर
झील भी
अपने शहर के लिए
तोड़ देती है अपनी सारी ख़ामोशी
और लहर-दर-लहर
अपने शहर का श्रृंगार करती रहती है
शहर की ज़ुबान पर चढ़ी हुई है झील
और झील भी हर-हमेश अपने शहर की
कुशल-क्षेम जपती रहती है
झील से शहर है
और शहर में झील रहती है