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झील / मधुप मोहता
Kavita Kosh से
कुछ ऐसे आती है तुम्हारी याद
जैसे झील के उस पार वह नाव
दिखती तो है,
पर बारिश की बूंदों से सहमकर,
ठहर जाती हो।
मैं करता हूं इंतज़ार।
अक्सर, छू जाती है
परछाईं तुम्हारी मुझे,
पर सूरज के डर से जैसे,
गुलाबी अंधेरों में छिप जाती हो।
मैं तरसा हूं अक्सर तुम्हारी
आवाज़ के लिए,
पर सो जाता हूं,
तुम, मेरे सपनों में गुनगुनाती हो।