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झुनझुने का पेड़ / श्रीधर करुणानिधि

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वह था तो एक पेड़ ही
लेकिन साबुत पेड़ को झूठ से फेंट देने पर बना हुआ
थोड़ा 'टनकाहा' चढ़ो तो डाल ही 'लचक' जाए
फल से कोसों दूर बेकाम का...
बचपन इस नाम के खिलौने से शुरू होता था
तब झूठे दिलासे की झूठी आँच
वहाँ नहीं पहुँची होती थी....

कथा-कहानियों के रास्ते घूम-फिरकर
झूठे से चाँद की ओट से वह बचपन में कैसे घुसता
यह ओट देने वाले चाँद
को भी नहीं पता...

हमें या तो पेड़ों के फल से प्यार होता
या उसकी मजबूत देह से
उसके हरेपन को हम सपनों में भी बिछा नहीं सकते
हरे पत्ते भी किसी काम के नहीं
हम तो अपने किवाड़, खिड़कियाँ, पलंग
मजबूत और इमारती तरख्त की उम्मीद से निकालने की सोचते
लेकिन झुनझुने का पेड़ !
झूठ की उम्मीद पर कमज़ोर देह की तरह बड़ा होता
वह कटकर गिरता नहीं कभी
बस, झूठी उम्मीद की तरह
चोर-दरवाज़े से बचपन से लेकर जवानी तक
झूठे दिलासे की तरह बड़ा होता रहता...
वह तो अपनी जगह जगह कायम था
बस, झूठ ही बढ़ रहा था हर वक़्त ...