भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झुलसते शहर में सूरज बिखर गया तो क्या / निश्तर ख़ानक़ाही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न गफ़लतें कहीं ऐसी, न आगही ऐसी
कहाँ किसी ने गुज़ारी है ज़िंदगी ऐसी

किस आबो-ताब से चमका था लम्हा भर का कोई
तमाम रात मिली फिर न रोशनी ऐसी

कोई बताए कहाँ जाके दिल को बहलाएँ
उदासियों में कभी थी न बे-दिली ऐसी

हमें तो जो भी मिला है, शरीफ लगता था
ख़ुदा किसी को कभी दे न सादगी ऐसी

वो इक ख़याल के गुंचे का फूल में ढलना
कहाँ कली को मिली है शगुफ्तग़ी ऐसी