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झुलसते शहर में सूरज बिखर गया तो क्या / निश्तर ख़ानक़ाही
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न गफ़लतें कहीं ऐसी, न आगही ऐसी
कहाँ किसी ने गुज़ारी है ज़िंदगी ऐसी
किस आबो-ताब से चमका था लम्हा भर का कोई
तमाम रात मिली फिर न रोशनी ऐसी
कोई बताए कहाँ जाके दिल को बहलाएँ
उदासियों में कभी थी न बे-दिली ऐसी
हमें तो जो भी मिला है, शरीफ लगता था
ख़ुदा किसी को कभी दे न सादगी ऐसी
वो इक ख़याल के गुंचे का फूल में ढलना
कहाँ कली को मिली है शगुफ्तग़ी ऐसी