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झूठ की बस्तियों में रहती हूँ / देवी नागरानी

कैसे दावा करूं मैं सच्ची हूँ
झूठ की बस्तियों में रहती हूँ|

मेरी तारीफ वो भी करते हैं
जिनकी नज़रों में रोज़ गिरती हूँ|

दुश्मनों का मलाल क्या कीजे दोस्तों के लिये तो अच्छी हूँ|

दिल्लगी इससे बढ़के क्या होगी
दिलजलों की गली में रहती हूँ|

भर गया मेरा दिल ही अपनों से
सुख से ग़ैरों के बीच रहती हूँ|

गागरों में जो भर चुके सागर
प्यास उनके लबों की बनती हूँ|

जीस्त ‘देवी’ है खेल शतरँजी
बनके मोहरा मैं चाल चलती हूँ|