भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झूठ के बीज / कुँअर रवीन्द्र
Kavita Kosh से
मैं जब भी खड़ा हो जाता हूँ
वे दुबक कर बैठ जाते हैं
मैं जब भी सहज ढंग से
चुपचाप
बैठ जाता हूँ
वे मुझे हारा हुआ मानकर
खड़े हो जाते हैं
खड़े होने के बावजूद
वे थरथराते. कंपकपाते रहते है
इस भय से कि
कहीं यह चुपचाप बैठा आदमी
फिर से खड़ा तो नहीं हो जाएगा
क्योंकि वे जानते है
जिस दिन यह चुप रहने वाला आदमी
खड़ा हो जाएगा
सारी सत्ताएँ.
सारी हवाई विचारधाराएँ
कुत्ते की उठी हुई टांग के नीचे होंगी
इसलिए वे जल्द से जल्द
झूठ के बीज बो देना चाहते हैं