झूठ के साथ सच ये कैसे हैं
हम यकीनो-गुमाँ में रहते हैं
दिल में अहसास भी कुछ ऐसे हैं
मुझको अक्सर जो ज़िन्दा रखते हैं
ग़म की बुनियाद पर है गुलशन जो
उस चमन में भी फूल खिलते हैं
उलझी-उलझी-सी हूँ यहाँ मैं भी
उलझे-उलझे वहाँ वो बैठे हैं
आइना राज़दां रहा अपना
दिल की हम उससे बात करते हैं
सोचती हूँ कि छोड़ दूँ उनको
मुझसे जो बेवजह उलझते हैं
हमपे साया बडों का है ‘देवी’
ख़ुद को महफूज़ यूँ भी रखते हैं