कौन मानेगा मेरा सच
जब मैं कहूँगा-
सच होता है कई प्रकार का।
सोते हुए पीठ के नीचे धरती
खड़े होते हुए पाँवों के नीचे धरती
और चन्द्रमा में जाकर हो सकता है
सर के ऊपर हो धरती,
तो हुआ न सच कई प्रकार का ?
सोते हुए का सच अलग, जागे हुए का सच अलग
बैठे, खड़े व 'उठे' हुए के सच भी अलग अलग
आँखों देखा, कानों सुना
हाथों से छुवा, जीभ से चखा,
तोड़ा-मरोड़ा सच भी अलग
फिर पुराना सच-नया सच
झूठा सच-सच्चा झूठ
और एक वह सच भी
जो पापा ने झूठ सिखाया था
"सच पुण्य और झूठ बोलना पाप"
सच बोलना तो आजकल
हो गया है सबसे बड़ा पाप
हो रहा है नीलाम हर चौराहे में
द्रौपदी की चीर की तरह
ठहर नहीं पा रहा
झूठ की ताकत के समक्ष
कौन मानेगा मेरी सच
जब में कहूँगा-
भगवान भी होते हैं
दो प्रकार के
एक वे
जो हमें पैदा करते हैं,
और दूसरे वो
जिन्हें हम पैदा करते हैं
उनकी मूर्ति बना
कोइ देख रहा हो तो
ज़ोर ज़ोर से
पहले सर और फिर
पूरे शरीर को भी झूमाकर
जय-जय कर नाचते भी हैं,
ख़ुद भी देवता बन जाते है,
बड़े-बड़े उपदेश देते हैं
जो जितना चढ़ावा चढ़ाये
उतना ही प्रसाद देते हैं,
वी०आई०पी० आ जाएँ तो
उन्हें अन्दर लाने
खुद मंदिर से बाहर भी निकल आते हैं।
परेशान लोगों के दुख हरने के बदले
मुर्गियाँ-बकरियाँ माँगते हैं,
उनके नाम पर राजनीति करते हैं...
दुकान चलाते हैं....
मूल कुमाउनीं पाठ
को मानौल मेरि सांचि
जब मैं कूंल-
सांचि हैं कई परकारैकि
सिति बेर पुठ मुणि धर्ति
ठड़ी बेर खुटों मुणि धर्ति
च्नरमा में जै बेर है सकूं
ख्वार मांथि हवो धर्ति
त य हुनीं सांचिक परकार-
सिती सांचि अलग, बिजी सांचि अलग
भैटी सांचि, ठड़ी सांचि, उठी सांचि
आंखौंल द्येखी, क्ानौंल सुंणी
हाततोल ठौक लगायी सांचि
पुरांणि सांचि-नईं सांचि
झुठि सांचि-सांचि झुठि
और एक उ लै सांचि
ज्ो ब्ाबुल झुठि सिखै-
`सांचि पुन, झुठि बुलांण पाप´
सांचि त अच्यान
हैगे-सबूं है ठुलि पाप
हुंणौ निलाम हर चौबाट में
द्रोपदिक चीराक भैं
उभी न रै सकनै्य
झुठिकि ताकतै सामुंणि ।
को मानौल म्येरि सांचि
जब मैं कूंल-
भगवान लै हुनीं
द्वि परकार्ाक
एक उं
जो हमूकैं पैद करनीं
दुसार उं
जनूं कैं हम पैद करनूं
उनैरि मूरत बनै
क्वे चालौ
जोर-जोरैल
हुत्तै आंग झुमै
जै-जै करि नाचनूं
आफ्फी लै द्याप्त बंणि जानूं
कुकुड़-बकार मांगनू
उनार नौं पारि
दुकान चलूनूं।