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झोंपड़ी के कत्ल का संशय हुआ है / भगवत दुबे

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ग्रीष्म ने जब भी जलाये गाँव मेरे
पीर की अनुभूति से
परिचय हुआ है।

धूप में मज़दूर जब नंगे बदन थे,
देखकर आतप्त तब मेरे नयन थे।
सर्वहारा एक मुझमें तप रहा था,
खुद मेरे अहसास को
विस्मय हुआ है!

पाँव में छाले, किसी के फूटते थे,
वो गिरें तो अंग मेरे टूटते थे।
रंग जब अट्टालिकाओं पर चढ़े हैं,
झोंपड़ी के कत्ल का
संशय हुआ है!

साँस जब फूली श्रमिक की, धमनियों की,
आँख भर आयी, विटप की फुनगियों की।
भ्रूण अँकुराये लता की कोख में जब,
हार में भी जीत का
निश्चय हुआ है!