भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झोपड़ी और बंगले / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
एक मकान के सौ-सौ किरायेदार हैं
गरीब लोग तो फुटपाथ पर लाचार हैं
आलीशान बंगले व गाड़ियां हर एक की
चलते वो शान से दिखाते दमदार हैं
झोपड़ी बनाए कोई तिरपाल व छप्परनुमा
ऊपर से ठण्डी व गर्मी बरसात यूं
धूल है बदन नुमा, बदन पे धूल है जमा
गरीबी में लगता मैं आदिम इंसान हूँ
भीख मांगता है कोई गाकर व नाचकर
वो कपड़ा उठा दिखाता है, पेट पीठ समान है
गाड़ियांे के शीशे से झांकते हैं लोग कौन
ऐसी हालत पर जो बनते अंजान हैं
जाति की गरीबी पर धर्म है छिपा हुआ
भिखमंगे में देखते हैं कौन हिन्दू मुसलमान है
बढ़े दाढ़ी नाखून बाल चिथड़े में जिंदगी
आदमी गरीबी में होता बदनाम है