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टक्का के गाछ / गुरेश मोहन घोष
Kavita Kosh से
करम नै तोरोॅ धरलोॅ छौं,
नौकरी तोरोॅ धरलोॅ छौं।
एक बिघा बेची केॅ बूझोॅ-
आपे खटियाँ पड़लोॅ छौं।
दैन्हा हाथें आगू दै छै,
बामा हाथें पाछू लै छैं।
डोॅर कहाँ ई बरोॅ तर छै?
चढ़ी जा बट्टोॅ बढ़लोॅ छौं।
दिल्ली पटना कथौलेॅ जैभेॅ?
जहाँ भी जैभेॅ विक्की जैभेॅ।
निक्कोॅ छौं सलटी लेॅ यांही।-
सस्तोॅ खुब्बे पड़लोॅ छौं।
मोॅन भरी काटै के पैन्हैं-
सैर भरी तेॅ छौंटै पड़थौं।
बादोॅ में खाबौ सें भरिहोॅ
बीरा-काठी भरलोॅ छौं।
आपनोॅ सब नै आपनोॅ होय छै,
लाज परान-सब झाँपनोॅ होय छै,
देस समाज के पीछूं पुरखा,
झुट्ठे सब हिन मरलोॅ छौं।
जरने वाला जरथैं छै,
मरने वाला मरथै छै।
टक्का के तांे गाछ लगाबोॅ,
लूथनी झुक्कोॅ फरलोॅ छौं-
नौकरी तोरोॅ धरलोॅ छौं।