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टटोलती यादें / राकेश पाठक
Kavita Kosh से
हम अक्सर आईने के
सामने खड़े होकर
खुद को टटोलते हैं, ढूँढते हैं
देखते हैं, अपना अतीत
और ऐसे, मानों
कोई खोयी हुई चीज़
पुनः प्राप्त होने को है
हम नित्य कुछ खोते हैं
और ढूँढते भी हैं
ताकि समय की गर्द में
हम भूल न जाएँ, कि-
हमें याद क्या करना था ?
नयी चीज़ें प्रवेश करतीं हैं
पुराने को धकियाते हुए
और पुरानी होती हुई
धूल का एक गुबार
इसे अदृश्य सा कर देता है
और हम फिर भूलने लगते हैं
कि अचानक ही
सुनहरी यादों का झोंका
गर्द गुबार को उड़ाते हुए
वक्त को हाथ में कैद कर देता है
और हमें याद हो आता है
ज़ज्बातों को समेटे
अतल समुद्र में धीरे-धीरे
सूर्यास्त के साथ डूब जाना.