भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टपकती आँखें / बाल गंगाधर 'बागी'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भूख के मारे उनकी आंखें टपकती हैं
जिन्हें गुर्बत में रोटी भी नहीं मिलती हैं
ये सूरज गुमान करना अपने ऊपर
शाम होने पर तेरी औकात पता चलती है
अंधेरे में बस तेरा भी नहीं चलता
कुछ ऐसे लोगों की, जिन्दगी ढलती है
लोग हवा को रोकने की फिराक में हैं
जो चिंगारी को आग में बदलती है
दिल के दीवार को सरहद न बनने देना
दोस्ती जहाँ पर दुश्मनी में ढलती है