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टपकती आँखें / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
भूख के मारे उनकी आंखें टपकती हैं
जिन्हें गुर्बत में रोटी भी नहीं मिलती हैं
ये सूरज गुमान करना अपने ऊपर
शाम होने पर तेरी औकात पता चलती है
अंधेरे में बस तेरा भी नहीं चलता
कुछ ऐसे लोगों की, जिन्दगी ढलती है
लोग हवा को रोकने की फिराक में हैं
जो चिंगारी को आग में बदलती है
दिल के दीवार को सरहद न बनने देना
दोस्ती जहाँ पर दुश्मनी में ढलती है