भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टलमल पहाड़ / शंख घोष

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब चारों ओर दरारों से भर गया है पर्वत
तुम्हारी मृत आँखों की पलकों से
उभर रहा है वाष्प-गह्वर
और उसे ढँक देना चाहता है कोई अदृश्य हाथ,

दृष्टिहीन खोखल के प्रगाढ़ अंचल में
अविराम उतरते आ रहे हैं कितने ही कंकड़
और हम लोग पीली पड़ चुकी
सफ़ेद खोपड़ी के सामने खड़े हैं, थिर —
मानो कुहासे के भीतर से उठ रहा हो चाँद
हालाँकि आज भी सम्भव नहीं शिनाख़्त करना कि
इतने अभिशापों के भीतर-भीतर
विषैले लताबीज की परम्परा
किसने तुम्हारे मुँह में रख दी थी उस दिन
तन्द्रालस जाड़े की रात!

जब इस नील अधोनील श्वास के प्रतिबिम्ब में
बिखरी हुई पंक्तियाँ
काँपती रहती है वासुकि के फन पर
और मर्म के मर्मर में हाहाकार कर उठते हैं
तराई के जंगल
मैं तब भी जीवन की ही बात करता हूँ

जब जानवरों के पंजों के निशान देखते-देखते
दाखि़ल हो जाता हूँ
दिगन्त के अन्धेरे के भीतर-भीतर
किसी आरक्त आत्मघात के झुके कगार पर
मैं तब भी जीवन की ही बात करता हूँ

जब तुम्हारी मृत आँखों की पलकों पर से
अदृश्य हाथ हटाकर
मैं हर खोखल में रख जाता हूँ
मेरा अधिकारहीन आप्लावित चुम्बन —
मैं तब भी जीवन की ही बात करता हूँ

तुम्हारी मृत आँखों की पलकों से
उभर रहा है वाष्प-गह्वर
और उसे ढँक देना चाहता है
कोई अदृश्य अनसुना हाथ ... यह टलमल पहाड़ !

मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी