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टहलते टहलते मिरे गांव चलिए / रविकांत अनमोल

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टहलते टहलते मिरे गांव चलिए
कभी शाम ढलते मिरे गांव चलिए

अंधेरे में कुछ रौशनी हल्की-हल्की
कि जैसे पहाड़ों से किरनें हों छल्की
कहीं पेड़ दरिया किनारे मिलेंगे
बड़े प्यारे प्यारे नज़ारे मिलेंगे
बिदा हो रहे चाँद तारे मिलेंगे
कभी आँख मलते मिरे गांव चलिए

लगे ओस की बूंद मोती के जैसी
चमकती है फूलों पे जोती के जैसी
वो लहरा के बलखाती फूलों की डाली
वो कांटों से गुल छीनता बाग़माली
वो मंदिर की घंटी वो पूजा की थाली
कभी दीप जलते मिरे गांव चलिए

कहीं बहती नदिया के धारों की कलकल
कहीं कोई गोरी बिरह बान घायल
वो हद्दे नज़र तक हरे खेत हर सू
वो खेतों की मिट्टी की सोंधी सी ख़ुश्बू
कहीं दूर कोयल की मीठी सी कुहु कू
कभी चलते चलते मिरे गांव चलिए

कहीं फूल सरसों के हैं पीले पीले
कहीं गूंजते हैं तराने सुरीले
गगन को ज़मीं चूमते देखना हो
समय चक्र को घूमते देखना हो
अगर गांव को झूमते देखना हो
तो मौसम बदलते मिरे गांव चलिए

बरसता है आंगन में बारिश का पानी
तो दिल को लुभाती है रुत ये सुहानी
जो बरसेगा पानी तो गाएंगे मिल के
कि इस बार सावन मनाएंगे मिल के
पुए खीर हलवा उड़ाएंगे मिल के
संभलते फिसलते मिरे गांव चलिए