टाइम्ज़ ऑफ पं. मेला राम वफ़ा / राजेन्द्र नाथ रहबर / मेला राम 'वफ़ा'
ज़िक्र है उर्दू शायरी के ला-ज़वाल और ग़ैर-फ़ानी शुहरत हासिल करने वाले शायर का जिसे पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्व. सरदार प्रताप सिंह कैरों की सरकार ने 'राज कवि' के ख़िताब से नवाज़ा था। ज़िक्र है मशहूर उर्दू शायर स्व. पं. मेला राम वफ़ा। पं. मेला राम वफ़ा का जन्म संयुक्त पंजाब के ज़िला सियालकोट के गांव ' दीपोके' में 26 जनवरी 1895 को हुआ। ये गांव सियालकोट शहर से बीस बाइस मील की दूरी पर था। वफ़ा साहिब के पिता का नाम पं. भगत राम था और दादा का नाम पं. जयदास। पं. जयदास अनपढ़ थे मगर ख़ानदानी असर और रसूख़ और निजी गुणों और लियाक़त के कारण ज़फरवाल तहसील की टाऊन कमेटी के मैम्बर मनोनीत किये गये थे। पं. जयदास का पुश्तैनी व्यवसाय साहूकारा था। पचास एकड़ के क़रीब ज़मीन थी। घरेलू ज़िम्मेदारियों का बोझ उनके मंझले बेटे और पं. मेला राम वफ़ा के पिता पं. भगत राम पर था।
पं. मेला राम वफ़ा ने अपने ननिहाल क़िला सोबा सिंह के स्कूल से प्राइमरी की परीक्षा पास की और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड हाई स्कूल पसरूर में दाख़िल हुए। इसी वर्ष जब कि उ की उम्र केवल बारह साल थी, उनकी शादी कर दी गई। पसरूर में नवीं श्रेणी तक शिक्षा प्राप्त की फिर स्काच मिशन हाई सियालकोट में दाखिल हुए जहां से 1913 में दसवीं की परीक्षा पास की। पं. मेला राम वफ़ा की ज़िन्दगी को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है। 1. साहित्यिक 2. अख़बारी और सियासी। पं. मेला राम वफ़ा क़ुदरत से शायर पैदा हुए थे मगर उनकी शायरी को उन की सियासियात ने, अगर वफ़ा अख़बार नवीसी का पेशा इख़्तियार न करते और पूरा ध्यान शायरी पर केंद्रित करते तो बतौर शायर उनका दर्जा और भी बड़ा होता। 1911ई. में जबकि 'वफ़ा' की उम्र 17 साल थी और वह आठवीं कक्षा में पढ़ते थे उन्होंने शेर कहना शुरू कर दिया था। 1922 में वह पं. राज नारायण 'अरमान' देहलवी के शागिर्द हो गये। पं. 'अरमान' देहलवी, दाग़ देहलवी के सीनियर शागिर्द थे। वफ़ा साहिब के बड़े भाई पं. संत राम भी शायर थे और शौक़ तख़ल्लुस करते थे। शुरु शुरु में वफ़ा साहिब ने शैख़ इब्राहिम ज़ौक़ देहलवी का रंग अपनाया-
भला जिस बज़्म में ग़ैरों की खिचड़ी पकती रहती हो
वहां कब ऐ दिले-नादां हमारी दाल गलती है।
फिर दाग़ की शोख़ी और सादगी पसंद आई-
तुम्हें उस कूचे ने देखा है रातों को 'वफ़ा' अक्सर
ज़माना जानता है ख़ूब जैसे पारसा तुम हो।
उस के बाद 'मीर' और मोमिन की शायरी का रंग 'वफ़ा' की शायरी में शामिल होता गया-
-उम्मीदे-वफ़ा, 'वफ़ा' बुतों से
ऐ मर्दे-ख़ुदा, ख़ुदा ख़ुदा कर।
-इतनी सी बात पे बिगड़े ही चले जाते हो
ले लो तुम बोसा-ए-लब, बोसा-ए-लब के बदले।
स्कूली जीवन में ही वफ़ा इतनज सूझ बूझ के मालिक हो गये थे कि हैडमास्टर साहिब की लिखी हुई प्रार्थना में ग़लतियां निकालते थे। और प्रार्थना सभा में हंसने लग जाते थे। पहले तो हैडमास्टर साहिब नाराज़ हुए किन्तु जब कुछ अच्छे शायरों ने वफ़ा साहिब को दुरुस्त ठहराया तो हेडमास्टर साहिब को अपनी गलती का एहसास हुआ। फिर तो स्कूल की दीवारों पर लिखे सुविचार में वफ़ा के शेर शामिल हो गये।
वफ़ा साहिब बड़े देश भक्त थे। श्री प्रीतम ज़ियाई के शब्दों में देश प्रेम का जज़्बा कूट कूट कर उन के दिल में भरा हुआ था। भारत माता को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने के लिए शायरी के बे-ख़ौफ़ इस्तेमाल में, उर्दू का कोई क़ाबिले-ज़िक्र शायर यहां तक कि 'जोश मलीहाबादी' भी वफ़ा साहिब का मुक़ाबिला नहीं कर सकते। अंग्रेज़ को संबोधित करके फरमाते हैं।
-बर्तानियों से कह दो अब ज़िलते ग़ुलामी
करता नहीं गवारा हिन्दोस्तां हमारा
बर्तानिया के तुम हो, हिन्दोस्तां के हम हैं
बर्तानिया तुम्हारा, हिन्दोस्तां हमारा
छोड़ो बस अब ख़ुदारा हिन्दोस्तां हमारा।
1941 ई. में वफ़ा साहिब के बेटे स्व. श्री सूरज प्रकाश भारद्वाज ने वफ़ा साहिब की देश भक्ति और सियासी नज़्मों का संग्रह ' सोज़े-वतन' के नाम से प्रकाशित किया था। उस के बाद अप्रैल, 1959 में उन की अदबी, सियासी और रूहानी नज़्मों और ग़ज़लों का संग्रह 'संगे-मील' यानी मील का पत्थर के नाम से उर्दू में प्रकाशित हुआ जिस की भूमिका स्व. श्री प्रीतम ज़ियाई ने लिखी थी। और ये लेख लिखने के लिए, उनकी लिखी भूमिका मेरे लिए मददगार साबित हुई। सूरज भारद्वाज वफ़ा साहिब की अकेली संतान थे। और उनके जीवन काल में ही एक सड़क हादिसा में स्वर्गवास हो गये थे। संगे-मील में प्रकाशित अपने कलाम को वफ़ा साहिब ने चार भागों में बांटा था। 1. महसूसात 2. सियासियात 3. रूहानियत 4. ग़ज़लियात। इस पुस्तक में उन की ग़ज़लियात वाला भाग ही प्रकाशित किया जा रहा है और वह ग़ज़लें भेज शामिल हैं जो संगे-मील के प्रकाशन 1959 के बाद उन्होंने कहीं। ये ग़ज़लें उनके एक शागिर्द कुंदन सिंह अख़्तर हरेवासिया के सौजन्य से प्राप्त हुई, 'वफ़ा' साहिब ने कई शेर बड़ी सरल भाषा में कहे हैं जैसे-
लिफ़ाफ़े में पुर्ज़े मिरे ख़त के हैं
मिरे ख़त का आख़िर जवाब आ गया।
इस शेर में दिये गये वफ़ा साहिब के नुस्ख़े को एक बार मैं ने आज़माया था और ये आज़माइश की कसौटी पर पूरा उतरा था। पंजाब के एक लेखक और शायर को मैं तस्लीम नहीं करता था और उन्हें मालूम भी था कि मैं उन्हें स्वीकृति नहीं देता। वह मुझे निरन्तर पोस्ट कार्ड लिखते रहते थे जिन की भाषा का स्वाद कड़वा ही होता था। जब वह अपनी हद पर करने लग गये तो मैंने उनके एक पोस्ट कार्ड के चार टुकड़े किये, उन को लिफ़ाफ़े में रक्खा उनका पता लिखा और लिफाफा डाक के हवाले कर दिया। उस के बाद वह कई साल जीवित रहे किन्तु मुझे उनका कोई ख़त नहीं आया। ख़ैर एक शेर देखिये-
कुछ कह के जो बन जाऊं बुरा सब की नज़र में
इस से यही अच्छा है कि मैं कुछ नहीं कहता।
अंग्रेज़ी कहावत है 'साइलेंस इज़ गोल्डन'। वैसे भी आदमी जब तक कुछ न बोले उस के ऐब और हुनर छुपे रहते हैं। 'ता मर्द सुख़न न गुफ्ता बाशद / ऐबे-हुनर निहुफ्ता बाशद'
एक और शेर मुलाहज़ा फरमाएं-
इक बार उस ने मुझको देखा था मुस्कुरा कर
इतनी सी है हक़ीक़त बाक़ी कहानियां हैं।
बड़ी सरल भाषा में कहा गया अच्छा शेर है। सुनते आये थे कि कोई हसीना मुस्कुरा कर देख ले तो मुसाफ़िर रास्ता भूल जाते हैं।
' इक नज़र मुड़ के देखने वाले/ क्या ये ख़ैरात फिर नहीं होगी' वाला मुआमला बन जाता है। वफ़ा साहिब का एक और शेर देखें। फरमाते हैं-
ये बात कि कहना है मुझे तुमसे बहुत कुछ
इस बात से पैदा है कि मैं कुछ नहीं कहता।
पैदा- ज़ाहिर! फरमाते हैं वह दिल जो किसी का गिला गुज़ार नहीं होता अक्सर उस में बहुत से गिले तड़प रहे होते हैं। 'न जाने कितने गिले उस में मुज़्तरिब हैं नदीम / वो एक दिल जो किसी का गिला गुज़ार नहीं'। बाजा राग से भरा रहता है किन्तु जब तक उसे छेड़ा न जाये वो ख़ामोश रहता है एक और शेर देखें जो वफ़ा साहिब की शायराना ख़ुश-सलीकगी की जीती जागती तस्वीर है।
किस की गली में पाए गये खून ले निशान
आई कहां से दिल की ख़बर कुछ न पूछिए।
महबूब की गली में आशिक़ के दिल के खून के निशान का मिलना, वफ़ा साहिब के इस साधारण मज़मून को बड़े सुन्दर शब्दों में शेर में गुज़ार दिया है। सरकार के झुटे ऐलानों और कौल-ओ-क़रार का ज़िक्र करते हुए क्या ही अछूता शेर कहा है।
-ऐ वफ़ा दूर बहुत दूर है वो खुशहाली
जो नज़र आती है सरकार के ऐलानों में।
अब कुछ और शेर मुलाहज़ा फरमाएं जिन में शायर की आत्मा को भिन्न भिन्न रंगों में देखा जा सकता है-
- पूछें वो काश हाल दिले-बेक़रार का
हम भी कहें कि शुक्र है परवरदिगार का।
- हो आते साथ आप भी दो चार दस कदम
ले जा रहे हैं लोग जनाज़ा शहीद का।
- बस एक ऐ वफ़ा मिरे मिटने की देर थी
मुझ को मिटा चुका तो ज़माना बदल गया।
-सुब्ह का मुंह देखना मेरे मुक़द्दर में न था
मेरा अंदेशा न था कुछ बे महल फ़ुर्कत की रात।
- तरददुर भी आख़िर कोई चीज़ है
मुक़द्दर ही दुनिया में सब कुछ नहीं।
-जीने वाले भी मर ही जाते हैं
मरने वालों का नाम होता है।
-ये शागिर्द आजकल के, तौबा तौबा, ऐ वफ़ा तौबा
उड़ा डालें जो बस इनका चले उस्ताद के टुकड़े।
-इस दौर में कि होते हैं ना-अहल सरफ़राज़
बेचारगी-ए-अहले-हुनर कुछ न पूछिए।
- उन नामियों के हश्र से इबरत पज़ीर हो
बाक़ी नहीं निशान भी जिन के ग़ुबार का।
वफ़ा साहिब की परवरिश गांव के माहौल में हुई थी जिस का असर जीवन भर उन पर रहा। बचपन में खेतों में पशु भी चराने जाया करते थे और अपने पशु किसी साथी चरवाहे को सौंप कर ख़ुद किसी वृक्ष की छांव में बैठ कर शेर कहते। लाहौर जैसे बड़े शहर में भी वह सादगी का नमूना बन कर रहे यहां तक कि देखने में अनपढ़ से नज़र आते थे। मशहूर कहानीकार पं. सुदर्शन ने अपनी किताब गुलदस्ता-ए-सुख़न में लिखा है देखें में गुमान तक नहीं होता कि यह शख्स शेर कहना तो दरकिनार शेर समझ भी सकता होगा"।
1930 ई. की बात है पंजाब के शहर गुजरात की जेल में वफ़ा साहिब दो साल की क़ैद एक बागियाना नज़्म 'ऐ फिरंगी' लिखने के जुर्म में काट रहे थे। जेलों में सियासी क़ैदियों के लिए अंग्रेज़ सरकार का एक पिट्ठू अख़बार 'सिविल एंड मिल्ट्री गज़ट' आता था। वफ़ा साहिब एक दिन अख़बार देख रहे थे कि देहली के एक सियासी क़ैदी ने उन्हें अनपढ़ समझते हुए कहा कि "मुझे 15-20 मिनट के लिए अख़बार देख लेने दें फिर आप सारा दिन मूरतें देखते रहना।" इस ओर मशहूर नेता डॉ. सत्यपाल ज़ोर ज़ोर से हंसने लगे। देहलवी क़ैदी ने हंसने का सबब पूछा तो डॉ. सत्यपाल ने बताया कि जिस शख्स पर आप मूरतें देखने की फ़बती चुस्त कर रहे हैं वह पंजाब के सबसे बड़े कौम परस्त और सब से ज़ियादा संख्या में छपने वाले अख़बार 'वीर भारत' का संपादक पं. मेला राम वफ़ा है और मैं और आप उस से कम से कम एक साल तक अख़बार पढ़ने का सबक़ ले सकते हैं। किन्तु उसे यक़ीन न आया और वह और उस के साथी देहलवी क़ैदी यही समझते रहे कि डॉ. सत्यपाल, डॉ. गोपीचंद भार्गव और दूसरे पंजाबी क़ैदियों ने आपस में साज़िश करके अनपढ़ क़ैदी को पं. मेला राम वफ़ा के नाम से मशहूर कर रक्खा है।
इसी प्रकार एक बार किसी ने वफ़ा साहिब को ही पूछ लिया "वफ़ा साहिब! क्या आप स्वयं कविताएं लिखते हैं" वफ़ा साहिब ने तुरन्त उत्तर दिया, " नहीं! मुझे मेरी पत्नी लिख कर देती है" वफ़ा साहिब की पत्नी की ज़िक्र आया तो एक बात उन की भी आप से साझा करता हूँ। महाशा सुदर्शन और वफ़ा साहिब की पत्नी एक ही गांव के थे। एक बार महाशा सुदर्शन से मिलने आने वाले घर गये तो वफ़ा साहिब ने अपनी पत्नी से कहा कि घर में मेहमान है हैं, बाज़ार जाकर कुछ खाने पीने का सामान उनके लिए ले आओ वह सामान लेकर आईं तो वफ़ा साहिब से पूछा कि मेहमान कहां हैं? वफ़ा साहिब ने महाशा सुदर्शन की ओर इशारा किया तो कहने लगीं " ये तो मूआ बद्री है"। महाशा सुदर्शन का असली नाम बद्री ही था।
वफ़ा साहिब अपने बेटे को प्यार से 'बावा' कहकर पुकारते थे और ऊनी पत्नी को "बावे की मां" कहकर पुकारते थे। मुझे एक बार श्री तिलक राज बेताब जालंधरी की हमराही में श्री वफ़ा साहिब के घर पर एक रात ठहरने का सुअवसर प्राप्त हुआ था।
1952 ई. का ज़िक्र हैवफ साहिब " वीर भारत'" देहली में संपादकीय लिखने का काम करते थे। एक दिन प्रो. पुरुषोत्तम लाल 'ज़िया' उनके पास आये। वह किसी फिल्म के लिए एक अच्छे गाने वाली एक्ट्रेस की तलाश में थे। वह वफ़ा को जी. बी. रोड, दिल्ली के एक बाला ख़ाना(कोठा) पर ले गये और गाने वाली को एक ग़ज़ल सुनाने के लिए कहा। ग़ज़ल के शेर बिल्कुल मामूली थे। वफ़ा साहिब चुप बैठे रहे, कोई दाद नहीं दी। गाना समाप्त होने पर प्रो. ज़िया खिलखिला कर हंस पड़े और कहने लगे वफ़ा साहिब हम घाटे में नहीं रहे। पांच रुपये के पचास रुपये का चुटकुला के चुके हैं।
लाहौर में एक ' बाज़ारी मुशायरा' हुआ करता था कभी किसी में और भी अनारकली के किसी खुले की हिस्से में शाम के समय एक मेज़ लग जाती थी। और किसी साहिब को कुर्सी पर बिठा दिया जाता था। यह प्रबंध देख कर कुछ लोग जिनके पास समय होता था मेज़ के आस पास खड़े हो जाते थे। फिर स्टेज से घोषणा होती थी की यह मुशायरा शुरू होता है स्टेज सेकेटरी का फ़र्ज़ अल्लामा ताज़वर नजीबाबादी अदा करते थे। वहीं वफ़ा साहिब की मुलाक़ात ताज़वर नजीबाबादी से हुई। बाद में ये बाज़ार पंजाब के शिक्षा मंत्री, अल्लामा ताज़वर नज़ीबाबादी और वफ़ा साहिब के सहयोग से एस. पी एस हॉल में "अंजुमने-अरबाबे-इल्म" के बैनर तले होने लगा। इन मुशायरों में आग़ा हश्र कश्मीरी, पं. राज नारायण 'अरमान' देहलवी, ख़्वाजा दिल मुहम्मद दिल, आक़ा बेदार बख़्त बेदार, स. उदय सिंह शाइक फरीदकोटी, मनोहर सहाय अनवर, मुंशी मुहम्मद दीन फ़ौक़, हकीम अहमद शुजा, प्रो. तपिश, मौलाना अकबर शाह अकबर नजीबाबादी, नाज़िश लाहौरी, मौलाना शादां बिलग्रामी, डॉ. अंदलीब शादानी, मौलाना ज़फ़र अली खाँ, हफ़ीज़ जालंधरी, डॉ. मुहम्मद-उद-दीन तासीर, पं. हरिचन्द अख़्तर, यास यगाना चंगेज़ी, असग़र गोंडवी, जिगर मुरादाबादी, मुंशी तिलोक चंद महरूम, मौलाना चराग़ हसन हसरत, सरदार जा'फरी, अहमक फफून्दवी, मिर्ज़ा फ़हीम बेग फ़हीम ग्वालियरी, मौलाना अब्दुल मजीद सालिक, आरज़ू लखनवी, नाज़िश बदायूंनी, सूफ़ी ग़ुलाम मुस्तफा तबस्सुम, हफ़ीज़ होश्यारपुरी, अख़्तर शीरानी, सय्यद आबिद अली आबिद, फाखिर हरयाणवी, रविश सिद्दीक़ी, एहसान दानिश, अब्दुल हमीद अदम और पं. योगराज नज़र सुहानवी शामिल रहे और वफ़ा साहिब के संपर्क में आए। लेकिन वफ़ा साहिब की दोस्ती अल्लामा ताजवर नजीबाबादी और सरदार उदय सिंह शाइक से रही। यानी एक हिन्दू, एक मुस्लिम और एक सिख और उन तीनों की दोस्ती "इत्तिहादे-सुलासा" के नाम से मशहूर हुई।
मौलाना ज़फ़र अली खाँ निहायत अच्छे शायर थे पत्रकार थे। उन्होंने अपने अख़बार 'जमींदार" में एक मुतशायर ( बनावटी शायर) को संबोधित करते हुए लिखा था।
- तोड़ता है शायरी की टांग क्यों ऐ बे-हुनर
शेर कहने का सलीक़ा सीख मेला राम से।
मौलाना का यह शेर अब भी कुछ लोगों को याद है और वफ़ा साहिब के ज़िक्र में अक्सर इस का हवाला दिया जाता है।
1960 के करीब लुधियाना में "जश्ने-वफ़ा" मनाया गया और मुशायरा भी हुआ। इस मुशायरा में माननीय हफ़ीज़ मुहम्मद इब्राहिम मंत्री भारत सरकार और पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों भी उपस्थित हुए थे। उस समय के तमाम क़ाबिले-जिक्र शायर इस मुशायरे में शामिल हुए थे। ख़ाकसार राजेन्द्र नाथ रहबर को भी इस मुशायरा में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वफ़ा साहिब अपने शागिर्दों से मिलने पठानकोट आया करते थे जिस से मुझे भी उनके कदमों में बैठने का, उन्हें सुनने का और उन्हें हुक्के के काश लगाते देखने का मौक़ा मिलता था। इसी प्रकार स. उदय प्रताप शाइक फरीदकोटी से मुलाक़ातों का शरफ़ मुझे हासिल होता रहता था। जब मैं सर्विस के सिलसिले में चंडीगढ़ में रहता था तो वह कभी दफ़्तर में और कभी घर पर मुझ से मिलने आ जाया करते थे। अक्सर कहा करते थे कि रहबर हमारा शागिर्द भी नहीं है, फिर भी वह अपने उस्ताद पं. रतन पंडोरवी की तरह हमें इज़्ज़त देता है। वफ़ा साहिब ने कभी शायरी को अपना पेशा नहीं बनाया। बेक़रारी के लम्बे समय में भी नहीं। उन से फ़ैज़ हासिल करने वालों की संख्या तो बड़ी है किन्तु बाकायदा शागिर्दों की संख्या कम ही है। उन के शागिर्दों के नाम इस प्रकार हैं।
1. स्व. श्री प्रीतम ज़ियाई चीफ एडिटर रोज़ाना "वीर भारत" देहली
2.स्व. जनाब तुफ़ैल होश्यारपुरी, सम्पादक, महफ़िल लाहौर
3. स्व. पं. रामरतन 'मुज़्तर' (1906-2000) रिटायर्ड हेडमास्टर वासी गांव थरीये वाले बरास्ता मजीठा, अमृतसर। "मक़ाम-ए-वफ़ा" नामक पुस्तक लिख कर हक़्क़े-शागिर्दी अदा किया। इस पुस्तक में वह कलाम भी है जो वफ़ा साहिब ने 'संगे-मील' के प्रकाशन 1959 के बाद लिखा यानी 1959 से 1980 तक का कलाम।
4. स्व. पं. ठाकुर दस उल्फ़त ऐमनाबादी
5. श्री बलदेव कृष्ण 'असर' बी. ए
6. स्व. श्री शिव राज 'बहार', अमृतसर
7. स्व. शिव दयाल साहब बी. ए, चंडीगढ़
8. स्व. पं. द्वारिका दास निष्काम, जालंधर
9. स्व. श्री अयोध्या प्रकाश सरकश, दसूहा
11. स्व. पं. बद्रीनाथ कामिल, सरकारी हाई स्कूल, पठानकोट
12. स्व. श्री रमेश खोसला उम्मीद, टीचर, सरकारी हाई स्कूल, पठानकोट
13.ई. कुंदन सिंह अख़्तर हरेवासिया, (संगे-मील के बाद की ग़ज़लें आपने भिजवाई)
14. श्री तिलक राज 'बेताब' जालंधरी
15. स्व. श्री देसराज सोहल 'मुन्कर', जालंधर
16. स्व. श्री राजन सरहदी, पठानकोट
17. स्व. श्री चन्नन सिंह 'शाद'
18. स्व. डॉ. राम स्वरूप 'कौसर' जालंधर
19. श्री रमेश मेहता राज़, बजवाड़ा, ज़िला होशियारपुर
20. स्व. श्री मदन मोहन 'सरकश' जालंधर
21. स्व. स्वराज दत्त कँवल मेरठी, पठानकोट
22. श्री बलराज कैफ़
23. स्व. श्री फ़क़ीर चंद ज़ार
वफ़ा साहिब लाहौर से प्रकाशित होने वाले मशहूर उर्दू मासिक "मखज़न" के सम्पादक भी रहे।
आइए! अब वफ़ा साहिब की अख़बारी ज़िन्दगी पर नज़र डालें। 1913 ई. में मेट्रिक कज परीक्षा पास करने के बाद वफ़ा साहिब लाहौर आ गये और रेलवे के सदर दफ़्तर में मुलाज़िम हो गये मगर चार पांच महीने बाद उनकी तबीयत उकता गई और ऐसी उकताई कि उसके बाद सरकारी नौकरी नहीं की। उन्हीं दिनों पंजाब की मशहूर कांग्रेस नेता चौधरानी सरला देवी का अखबार " दीपक" शुरु हुआ जिस के सम्पादक मुंशी रछपाल सिंह 'शैदा' देहलवी थे। वफ़ा साहिब को वहां नौकरी मिल गयी। यहां से पं. मेला राम वफ़ा की अख़बारी ज़िन्दगी का आगाज़ होता है। इसी बीच ऊँची शिक्षा प्राप्त करने का ख़याल आया तो लाहौर के फरमान क्रिश्चयन कॉलेज में दाखिल हो गये मगर ज़ियादा देर शिक्षा ज़ारी न रख सके और उस समय के दैनिक अख़बार के सम्पादक लाला दीना नाथ हाफिज़ाबादी थे। ज़ियादा काम करने के कारण वफ़ा साहिब की सेहत खराब हो गई और आंखें भी खराब हो गई इस लिए त्यागपत्र दे कर गांव चले गये मगर दिसम्बर 1919 का कांग्रेस अजलास देखने अमृतसर आये तो वहां से लाहौर चले गये जहां उन्हें कई अखबारों से घर पर काम करने के लिए काम मिल गया। 1920 में शेरे-पंजाब लाला लाजपत राय ने जो पांच छः साल अमरीका में देश बहिष्कृत (जला वतन) की ज़िन्दगी गुज़ार कर भारत वापिस आ गये थे उर्दू का दैनिक अख़बार "वंदे मातरम" शुरू किया। वह स्वयं इस के सम्पादक थे। वफ़ा साहिब को इस के एडिटोरियल स्टॉफ में शामिल कर लिया गया किन्तु 4-5 महीने ही काम कर पाए थे कि दोपहर से शाम तक हल्का बुख़ार रहने लगा। डॉक्टरों ने तपेदिक का शक़ ज़ाहिर किया। इलाज से ठीक हो तो गये मगर कमज़ोरी के कारण अखबार के काम का बोझ उठाने के क़ाबिल नहीं थे इसलिए लाला लाजपत राय के इशारे पर जो तहरीक (नान कोऑपरेशन) के सिलसिला में जेल जा चुके थे वफ़ा साहिब को नेशन कॉलेज, लाहौर में उर्दू और फारसी पढ़ाने का काम मिल गया। इस कॉलेज में वह विद्यार्थी दाख़िल किये जाते थे जो सरकारी और ग़ैर सरकारी स्कूलों और कॉलेजों को तहरीक अदम तुआवन (नॉन कोऑपेरशन) के कारण छोड़ कर जाते थे। उन दिनों "वंदे मातरम" अख़बार के संपादकों की गिरफ्तारियों का चक्र जारी था और जून 1922 तक लाला लाजपत राय ले बाद "वंदे मातरम" के तीन सम्पादक जेल जा चुके थे। लाला जी ने चौथा सम्पादक वफ़ा साहिब का मुक़र्रर किया तो वफ़ा साहिब कॉलेज छोड़ कर "वंदे मातरम" के सम्पादक बन गये और बग़ावत अमेज़ एडिटोरियल लिखने लगे। जेल में जब लाला लाजपत राय के वार्ड में किसी कोठड़ी की सफाई की जाती तो लाला जी कहते कि यह हमारे चौथे सम्पादक के लिए साफ की जा रही है। 1923 के आख़िर में अख़बार की पॉलिसी के सवाल पर लाला जी से मत भेद हो गया तो वफ़ा साहिब ने इस्तीफ़ा दे दिया। लाला लाजपत राय जेल से वापिस आये तो कुछ अरसा बाद उन्होंने "हिन्दू महासभा" की अध्यक्षता क़ुबूल कर ली, मगर वफ़ा साहिब अपने क़लम को कांग्रेस के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने को तैयार नहीं हुए। फरवरी 1934 में वफ़ा साहिब ने अपना दैनिक अख़बार "भारत" जारी किया जो आठ महीने चल कर फेल हो गया। 1925 में महामना पं. मदन मोहन मालवीय की सरपरस्ती में स्नातन धर्मियों का दैनिक अख़बार "भीष्म" जारी किया। वफ़ा साहिब इस में संपादक नियुक्त हुए किन्तु 1926 के जनरल इलेक्शन में मालवीय जी और लाला लाजपत राय ने कांग्रेस का मुक़ाबिला करने के लिए "कांग्रेस नेशनलिस्ट पार्टी" बना ली तो वफ़ा साहिब ने "भीष्म" से इस्तीफ़ा दे दिया और गांव चले गये। 1928 में फिर उन्हें "भीष्म" का सम्पादक नियुक्त किया गया। उस से कुछ मुद्दत पहले इंग्लैंड की पार्लियामेंट की ओर से "साइमन कमीशन" मुक़र्रर किया गया। कांग्रेस ने इस के बाईकाट का ऐलान किया था। जब वह कमीशन भारत आया तो देश भर में इस का विरोध हुआ। लाहौर में एक विरोधी जलूस में पुलिस की लाठियों से लाला लाजपत राय को चोटें आईं जो घातक सिद्ध हुई। "भीष्म" के मैनेजिंग डायरेक्टर ने बाईकाट के ख़िलाफ़ एक लेख लिखा जिसे वफ़ा साहिब ने प्रकाशित करने से इंकार कर दिया। इस पर दोनों में झगड़ा हो गया और वफ़ा साहिब ने अख़बार से नाता तोड़ लिया और 1929 में अख़बार भी बन्द हो गया। "भीष्म" जी जगह मई, 1929 में पं. मदन मोहन मालवीय जी की सरपरस्ती में दैनिक "वीर भारत" शुरू हुआ। वफ़ा साहिब इस के संपादक नियुक्त हुए। उन दिनों कांग्रेस की तहरीके-आज़ादी पूरे जोबन पर थी। इंक़िलाब पसन्दों ने एक अंग्रेज़ असिस्टेंट सुप्रिडेंटेंट पुलिस का कत्ल कर दिया। ओस कत्ल के इल्ज़ाम में शहीद भगत सिंह और उनके साथियों पर मुक़द्दमा चला। इस सिलसिला में अमर शहीद जतिंदर नाथ दास भूख हड़ताल करके शहीद हो गये। इस घटनाओं से तहरीके-आज़ादी और भी जोर पकड़ गई और जेल जाने का शौक़ जनून की तरह जनता के सर पर सवार हो गया। वफ़ा साहिब ने ख़िलाफ़ भी एक मग़बियाना (बग़ावत भरी) नज़्म "ऐ फिरंगी" लिखने पर मुक़द्दमा चला जिस में उन्हें दो साल की सज़ा हुई। इस मुक़द्दमा के दौरान उन्होंने इसी शीर्षक के तहत "डेल्टर बाबा के क़लम से" बग़ावत आमेज़ नज़्मों का सिलसिला जारी रखा। डेल्टर बाबा वफ़ा साहिब के नौ उम्र बेटे सूरज प्रकाश भारद्वाज का प्यार का नाम था। 1931 में मालवीय जी ने "वीर भारत" का एक रोज़ाना एडिशन सियालकोट से भी शुरू कर दिया। इस प्रकार उर्दू अख़बारी दुनिया में एक ही समय में दो मक़ामात से प्रकाशित होने का गर्व "वीर भारत" को प्राप्त हुआ। 1932 में अंग्रेज़ी सरकार ने कई अख़बारों से जिन में "वीर भारत" भी शामिल था बिना कारण तीन तीन हज़ार रुपये की ज़मानत रक़्में मांग ली। पं. मदन मोहन मालवीय ज़मानत की रक़म जमा कराने की बजाय अख़बार बंद कर देने के हक़ में थे मगर "वीर भारत"ट्रस्ट ने जिस के वह स्वयं भी सदस्य थे, इस ख़याल से इत्तिफ़ाक़ नहीं किया मालवीय जी ने अख़बार से नाता तोड़ लिया और दैनिक अख़बार 'रहबर' शुरु किया जो बंटवारे तक जारी रहा। 1942 ई. में वफ़ा साहिब को "वीर भारत" में बुला लिया गया। उन्होंने "जंग का रंग" नाम से कॉलम लिखना शुरु किया जो मक़बूल हुआ। वफ़ा साहिब देश के बंटवारे तक "वीर भारत" में काम करते रहे।
1947 में देश का बंटवारा हुआ तो वफ़ा साहिब जोगिंदर नगर हिमांचल प्रदेश चले गये जहां उन्होंने अपना परिवार बंटवारा के तीन महीने पहले लाहौर में हो रहे फसादात के कारण भेज दिया था। कुछ देर जोगिंदर नगर में रहने के बाद वह पालमपुर आ गये। वहां से जालंधर चले गये जहां उन्होंने एक रोज़ाना अखबार निकालने के लिए दरख़्वास्त दे रखी थी जो दो महीने बीत जाने पर भी मंज़ूर हो कर वापस न आई। इस कारण वह कुनबा समेत सहारनपुर चले गये और रोज़ाना अख़बार "पंजाब मेल" शुरु किया जो ज़ियादा देर नहीं चला। उस के बाद वह परिवार समेत अपने बेटे सूरज प्रकाश भारद्वाज के साथ लखनऊ चले गये। कानपुर में उन्हें एक निकासी प्रेस अलाट हो गया। जस प्रैस से उन्होंने रोज़ाना अख़बार "अमृत" जारी किया। 1952 में कानपुर से देहली आ गये जहां उन्हें रोज़ाना "वीर भारत" में काम मिल गया जिस के संपादक वफ़ा साहिब के शागिर्द स्व. श्री प्रीतम ज़ियाई थे। वीर भारत देहली में वफ़ा साहिब ने कुछ महीने काम किया तो प्रबंधकीय मुआमलात को लेकर ट्रस्ट से उनका झगड़ा हो गया। उसके बाद वह कुछ देर अम्बाला में रहे, फिर अमृतसर में रहे उस के बाद आखिरकार जालंधर में पक्के तौर पर रिहाइश रख ली। 1935 में वफ़ा साहिब ने न्यू इंडिया लाइब्रेरी के नाम से किताबें छापने का इदारा शुरु किया था जो बेकारी के वक़्त में वफ़ा साहिब की रोज़ी रोटी का साधन बनता रहा। जालंधर में उन्होंने उयः इदारा फिर से शुरू किया और आख़िर दम तक उसे चलाया। वफ़ा साहिब ने बेकारी के कई दौर देखे। जब किसी अख़बार ने कांग्रेस के ख़िलाफ़ पॉलिसी इख़्तियार की, जब प्रबंधकीय मुआमलात में प्रतिकूलता हुई तो उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। आने ज़मीर की आवाज़ के ख़िलाफ़ इस स्वाभिमानी संपादक ने काम नहीं किया। तभी तो उनके शागिर्द स्व. पं. द्वारिका दास निष्काम, जालंधर ने यह पंक्ति लिखी थी।
-'मैं हूँ शागिर्दे-वफ़ा क्यों मुझ में ख़ुद्दारी न हो'
स्व. श्री फ़क़ीर चंद ज़ार ने एक बेटे की तरह 'वफ़ा' साहिब की ख़िदमत की और उन के आख़िरी वक़्त तक उन्हें अपने घर पर रखा, अब ऐसे लोग कहां!
आख़िर 19 सितम्बर 1980 के मनहूस दिन ये ख़बर आई कि वफ़ा साहिब स्वर्गवासी हो गये। वह अपने इस शेर की तफ़्सीर बन गये थे।
-मुंह से सरका रहे हो कफ़न क्या
जाओ तुमसे ख़फ़ा हो गये हम।
वह अब्दी नींद सो गये थे,शमा बुझ चुकी थी, धुंआ बाक़ी था। फूल का शीराज़ा बिख़र गया था, उस की महक बाक़ी थी और रहती दुनिया तक रहेगी।
'हक़ मग़फ़रत करे अजब आज़ाद मर्द था'
राजेन्द्र नाथ रहबर
शिरोमणि उर्दू साहित्यकार
पंजाब सरकार