भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
टाबर-५ / दुष्यन्त जोशी
Kavita Kosh से
जद आवै
परदेस सूं
कोई लूंठो नेता
आपणै देस
तद
टाबर आवै सड़कां माथै
उणां रै सुवागत सारू
नान्है-नान्है हाथां माथां
फूलां रै गुलदस्तै
अर तिरंगै नै
संभाळता
खड़्या रै'वै
भूखा-तिसा
पाणी पिसाब सारू
तरसता टाबर
नीं जाणै कुण आसी
पण
वांरै
आय'र जायां पछै
मनावै हरख
अर लेवै लाम्बौ सांस
भळै आ ज्यै
खेलता-कूदता
आप-आपरै घरां।