टूटता हूँ कभी जुड़ता हूँ मैं / नौ बहार साबिर
टूटता हूँ कभी जुड़ता हूँ मैं
जागती आँख का सपना हूँ मैं
अपनी सूरत को तरसता हूँ मैं
आइना ढूँडने निकला हूँ मैं
कभी पिन्हाँ<ref>गुप्त, छिपा हुआ</ref> कभी पैदा हूँ मैं
किस फ़ुसूँगर<ref>जादूगर</ref> का तमाशा हूँ मैं
ख़लिश-ए-ख़ार<ref>काँटे की चुभन</ref> कभी निकहत-ए-गुल<ref>फूल की ख़ुशबू</ref>
हर-नफ़स<ref>पल, क्षण, लम्हा</ref> रंग बदलता हूँ मैं
देखिए किसकी नज़र पड़ती है
कब से शोकेस में रक्खा हूँ मैं
कोई तिरयाक<ref>विषहर, विषनाशक, ज़ह्र-मोहरा</ref> नहीं मेरा इलाज
कुश्ता-ए-ज़हर-ए-तमन्ना<ref>ज़हर के मारे हुए की इच्छा रखने वाला</ref> हूँ मैं
कभी उठते हैं मिरे दाम बहुत
कभी बे-मोल भी महँगा हूँ मैं
कोई पहचाने तो क्या पहचाने
कभी सूरत कभी साया हूँ मैं
आतिश-ए-ग़म<ref>ग़म की आग</ref> की तमाज़त<ref>ताप, गर्मी</ref> के निसार<ref>निछावर, कुरबान</ref>
जितना तपता हूँ निखरता हूँ मैं
कोई जादा न मंज़िल ’साबिर’
अपने ही गिर्द<ref>चारों ओर</ref> भटकता हूँ मैं