टूटते परमाणु / अनुक्रमणिका / नहा कर नही लौटा है बुद्ध
अहसास पुराना हो चला था कि अब प्रवाह धीमा पड़ गया है। उदासीन-सी
निश्चितता में दोनों मिलते थे इधर।
मुलाक़ातें गिनती से ज़्यादा हो चुकी थीं। दोनों ही जानते थे कि अब वह कुछ नहीं
रह गया था जो कभी उनके बीच जादू जैसा खिलता था।
आस-पास की सड़कें दीवारें सब थक चुकी थीं। लोग-बाग की नज़रों में कोई
कौतूहल न रह गया था। अनिश्चितताएँ परेशानियाँ मिट रही थीं धीरे धीरे।
क्या उन्हें याद है जब लाइब्रेरी में किताबों से नज़रें उठते ही सिर्फ़ एक दूसरे को
देखती थीं; जब सभाओं में औरों की बतियाती शक्लों में एक दूसरे को देखते थे;
जब एक दूसरे की आँखों में शरारतें बाँट लेते थे; जब फोन पर काम के बहाने
लम्बी गुफ्तगू इसलिए होती थी कि दुनिया में तब सिर्फ़ एक दूसरे की आवाज़
इतनी मीठी होती थी
‘याद आती है पर नहीं आती।’
लगता है यह होना ही था। लम्बे अरसे से महीनों से, सालों से हो चला था। बहुत
पहले कभी संकत उभरने लगे थे जैसे अनबोए ही उग आए थे काँटे। चाय की
गर्मी या ठण्डक जैसे विषयों पर बहसें अचानक ही होती थीं। कभी बहसें होतीं
फोन पर कभी आमने-सामने, थोड़ी अवाँछित हिंसा भी आ जाती थी भाषा में।
धीरे धीरे सभी द्वन्द्व सुलझते चले थे। वे अलग ही अलग होते चले थे। बीच बीच
मेें बची-खुची उत्तेजना पास ले आती, वह भी बुझती बुझती कब की बुझ चुकी थी
एक दिन जैसे किसी बच्चे की चीख़।
निर्णय आता है हवाओं के साथ
घास पौधों को छूता आस-पास से।
फिर दूर से देखते ही नज़रें बचाकर चलने की दिशा बदल देना। अचानक हवा
के झोंकाेें के सथ आती याद पर कभी मुस्कराना, कभी चकित होना। धरती का
वह धरती न रहना, न रहना चाँद का वह चाँद। कभी कभी नाभि की ज़रूरतों से
इलेक्ट्रान का चीख़ना। आदम और हव्वा की कहानी सुलझाते पूरी पूरी सभ्यताओं
का मिट जाना। एक आदिम कुत्ते या मेढक से चला आ रहा अपराध बोध।
फिर कहीं कोई टूटता परमाणु। फिर कोई कहानी।