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टूटने के बाद (नवगीत) / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
दीखती ही नहीं
अब वह सन्धि
(अपनेपन भरी वह प्रीत)
जिसकी मन चहेती गन्ध में खिंचकर
चले आते थे कहीं से कहीं
दीखती ही नहीं
डोरियों की तरह कोमल और कच्चे
तान्त्रिक सन्देश
तार थे गोया
छाँह तन की भागती, मन भागता छूने
समय के साथ
साझीदार थे गोया
अब न छूती हवा
धकियाता न मौसम
देह का पर्वत
वहीं का वहीं
दीखती ही नहीं
है अनिश्चित
पतझरी उपवास के दिन
कोंपली मुस्कान पर साँकल
रंग उतरा दीखता मौसम
अब न भाती रात की मल-मल
बूँद बन कर टपक जाती है
कुछ कही अनकही
दीखती ही नहीं