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टूटी ईंटों में जीवन की आग / कुमार कृष्ण

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सुनो कारीगर-
यह रात में हारमोनियम बजाने का समय नहीं
न ही नयी सदी के पंचतन्त्र में गुम हो जाने का है
तुम्हारी कविता के लोकतन्त्र को बाँध दिया है-
एक खम्भे के साथ
इससे पहले कि पीली छतरी वाली लड़की को
काट खाए तिरिछ
तुम दिल्ली की दीवार से बाहर निकल आओ
इससे पहले कि रंग-बिरंगे भाले बढ़ें तुम्हारी ओर
तुम छप्पन तोले के करधन को अपनी डिबिया में छुपा लो
अब नहीं रही किसी को
पालगोमरा के स्कूटर की ज़रूरत
मित्र, ईश्वर की आँख में उतर आया है मोतिया
वह नहीं देख सकती सीजर की सीनाजोरी
नहीं देख सकती दरियाई घोड़े का दुःख
यह दत्तात्रेय के दुःख पर बात करने का वक़्त नहीं
राष्ट्रवाद पर बात करने का है
ऐसे समय में आख़िर एक रवीश कुमार
कैसे लड़ पाएगा तुम्हारे मोहनदास के लिए
तुम आए थे जिस जगह अपनी बहन और पत्नी के साथ
वहाँ नहीं मिलेगा अब कोई लाल घर
जिसकी छत पर कभी झूला झूलते थे सपनें
एक भाषा हुआ करती थी सपनों की
भाषा नाचती थी बांसुरी की धुन पर
टूटी-फूटी ईंटों में ढूंढ़ता हूँ बांसुरी की पीड़ा
सपनों का दुःख, जीवन की आग
ढूंढ़ता हूँ मरणासन्न सपनें
लिखना चाहता हूँ राजा कि न्यायहीनता
ऐन उसी वक़्त एक टूटी हुई ईंट धीरे से कहती है कान में-
हाकिम के पास है 124 ए का हंटर
तुम मनुष्य हो कैसे बन पाओगे वारेन हेस्टिंग्स का साँड
लेना होगा इसके लिए एक जन्म और
इस अग्निगर्भा पर।