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टूटी हुई दीवार की तक़दीर बना हूँ / राज नारायन 'राज़'
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टूटी हुई दीवार की तक़दीर बना हूँ
मैं कैसा फ़साना हूँ कहाँ लिक्खा हुआ हूँ
कोई भी मिरे कर्ब से आगाह नहीं है
मैं शाख से गिरते हुए पत्ते की सदा हूँ
मुट्ठी में लिए माज़ी ओ इमरोज की किरनें
मैं कब से नए दौर की चौखट पे खड़ा हूँ
इस शहर-ए-पुर-आशोब के हँगामा ओ शर में
ज़ैतून की डाली हूँ कहीं शाख़-ए-हिना हूँ
गवय्या नहीं लफ़्जों के मआनी से शनासा
इदराक की सरहद पे मैं चुप-चाप खड़ा हूँ
सिमटा तो बना फूलों की ख़ुश-रंग क़बाएँ
बिखरा हूँ ख़ुशबू की तरह फैल गया हूँ
मैं ‘राज़’ चमकता हुआ झूमर था किसी का
अब शब के समंदर में कहीं डूब गया हूँ