टूटे तारों की धूल के बीच / मनोज कुमार झा
मैं कनेर के फूल के लिए आया यहाँ
और कटहल के पत्ते ले जाने गाभिन बकरियों के लिए
और कुछ भी शेष नहीं मेरा इस मसान में
पितामह किस मृत्यु की बात करते हो
जैसा कहते हैं कि लुढ़के पाए गए थे
सूखे कीचड़ से भरी सरकारी नाली में
या लगा था उन्हें भाला जो किसी ने जंगली सूअर पर फेंका था
या सच है कि उतर गए थे मरे हुए कुएँ में भाँग में लथपथ
सौरी से बँधी माँ को क्या पता उन जुड़वें
नौनिहालों
की उन दोनों की रूलाई टूटी कि तभी टूट गए स्मृति के सूते अनेक
वो मरे शायद पिता न जो फेंकी माँ की पीठ पर
लकड़ी की पुरानी कुर्सी
माँ ने ही खा ली थी चूल्हे की मिट्टी बहुत ज़्यादा
या डॉक्टर ने सूई दे दी वही जो वो पड़ोसी के
बीमार बैल के लिए लाया था
विगत यह बार-बार उठता समुद्र
और मैं नमक की एक ढेला कभी फेन में घूमता
तो कभी लोटता तट पर ।