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टूटे हुए पंख हैं मेरे / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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टूटे हुए पंख हैं मेरे कैसे नील गगन उड़ जाऊँ ?

बदला हुआ हवा का रुख है
मौसम अड़ा हुआ सन्मुख है

इतनी विकट विसंगतियों में कैसे इच्छा शक्ति जगाऊँ ?
टूटे हुए पंख हैं मेरे कैसे नील गगन उड़ जाऊँ ?

ढलती शाम उदास हुई है
मन में बडी निराश हुई है

टूक-टूक पौरूष है मनका कैसे सृजन शक्ति ले आऊँ ?
टूटे हुए पंख हैं मेरे कैसे नील गगन उड़ जाऊँ ?

झंझावातों का गर्जन है
घन अँधेरों का नर्तक है

इतनी विषम परिस्थितियों में कैसे लक्ष्य भेद कर पाऊँ ?
टूटे हुए पंख हैं मेरे कैसे नील गगन उड़ जाऊँ ?

टूटी हुई कामनाएँ है
बुझती हुई साधनारँ हैं

इतना अन्तर्मन आहत हैं कैसे जीवन-ज्योति जलाऊँ ?
टूटे हुए पंख हैं मेरे कैसे नील गगन उड़ जाऊँ ?