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टूट कें काँच की रकाबी से / नवीन सी. चतुर्वेदी

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टूट कें काँच की रकाबी से।
हम बिखर ही गए सराबी से॥

नेह के बिन सनेह की बतियाँ!
ये दरस तौ हैं बस नवाबी से॥

हक्क तजबे कों नेंकु राजी नाँय।
गम के तेवर हैं इनकिलाबी से॥

बैद, कोऊ तौ औसधी बतलाउ।
घाव, गहराए हैं खराबी से॥

राख हियरे में खाक अँखियन में।
अब कपोल'उ कहाँ गुलाबी से॥

प्रश्न बन कें उभर न पाये हम।
बस्स, बन-बन, बने - जवाबी से॥

हमरे अँचरा में आए हैं इलजाम।
बिन परिश्रम की कामयाबी से॥

ब्रज-गजल के प्रयास अपने लिएँ।
सच कहें तौ हैं पेचताबी से॥

बस्स बदनौ<ref>बोलना</ref> है, कच्छ करनों नाँय।
हौ 'नवीन' आप हू किताबी से॥

शब्दार्थ
<references/>