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टूट गयी है रीढ़ देश की / विमल राजस्थानी

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टूट गयी है रीढ़ देश की, जनता हुई नपुंसक रे
राष्ट्र रसातल को जायेगा, आखिर कब तक, कब तक रे ?

डाकू, चोर माफिया सारे-
के सारे अब नेता हैं
कंस कुटिल, रावण के दल-
के दल नेता-अभिनेता हैं

लूट-खसोट मची है, दल-
ये सारे दलदल ही तो हैं
बोटों की यह राजनिति-
वंचना, भष्ट्र, छल ही तो है

सीताओं का हरण हो रहा, द्रुपदाएँ होतीं नंगी
दुःशासन शासन करते, दारू पी-पीकर, छक कर रे

ओ हिजड़ो ! कब तक सुविधा
-शुल्कों से काम चलाओगे
कब तक पथ-चैराहों पर-
गुंडों से गोली खाओगे ?

कब तक शोषण की चक्की-
में तुम खुद को पिसवावोगे ?
कब तक यों दर-दर भटकोगे
कब तक ठोकर खाओगे ?

कैसी यह आजादी, यह तो बर्बादी से भी बदतर
हमने कब सोचा था यों गोलियाँ चलेंगी तक-तक रे

‘लूट-काण्ड’ की मूत्रधार को
पीने वालों की क्षय हो
जातिवाद की विष्ठा खाकर
जीने वालों की क्षय हो
क्षय हो जो चुपचाप जुल्म-
सहते हैं पर खौलते नहीं
इस कलि-मल की धारा के
सँग बहने वालों की क्षय हो

जय हो जो सड़कों पर जुट सिंहों की भाँति दहाड़ेंगे
कुटिल अनैतिकता, असामाजिकता को पटक पछाड़ेंगे

मानव को गरिमा सौंपेगें,
श्रम का राजतिलक होगा
सामन्ती तलवार तोड़,
टुकड़े-टुकड़े कर डालेेंगे

जय हो, जिनकी वाणी गरजे, कलम उगलती आग रहे
तथाकथित इस प्रजातंत्र से मुक्त न हों हम जब तक रे !