टूट जाये हों न इतनी सख़्तियाँ
जानती हैं आजमाना तल्खियाँ
गुफ़्तगू से जख़्म तो भरता नहीं
बस सुकूँ देती हैं कुछ हमदर्दियाँ
अश्क़ यों गिरने लगे रुख़सार पर
अब कहाँ बाक़ी रहीं वो शोखियाँ
हर खबर कोई बशर पढ़ता नहीं
देखता है यह ज़माना सुर्खियाँ
जिंदगी है बाँटता सब को शज़र
किसलिये बनती हैं दुश्मन आँधियाँ
आदमी कोई ख़ुदा होता नहीं
हर किसी इंसान में हैं खामियाँ
दौर दहशत का है आया इस क़दर
हर तरफ दिखने लगीं बरबादियाँ