टेरत हैं सब ग्वाल कन्हैया, आवहु बेर भई / सूरदास
राग रामकली
(द्वारैं) टेरत हैं सब ग्वाल कन्हैया, आवहु बेर भई ।
आवहु बेगि, बिलम जनि लावहुँ, गैया दूरि गई ॥
यह सुनतहिं दोऊ उठि धाए, कछु अँचयौ कछु नाहिं ।
कितिक दूर सुरभी तुम छाँड़ी, बन तौ पहुँची नाहिं ॥
ग्वाल कह्यौ कछु पहुँची ह्वै हैं, कछु मिलिहैं मग माहिं ।
सूरदास बल मोहन धैया, गैयनि पूछत जाहिं ॥
भावार्थ :-- (द्वार पर से) सब गोपकुमार पुकार रहे हैं -`कन्हाई, आओ! देर हो गयी है । शीघ्र आओ ! देर मत करो । गायें दूर चली गयी हैं ।' यह सुनते ही दोनों भाई उठकर दौड़ पड़े । कुछ आचमन किया, कुछ नहीं किया (पूरा मुख भी नहीं धोया) । `तुम लोगों ने गायों को कितनी दूर छोड़ दिया ? कहीं वे वन में तो नहीं पहुँच गयीं ?' (यह पूछने पर)गोपबालकोंने कहा--`कुछ (वनमें) पहुँच गयी होंगी और कुछ मार्गमें मिलेंगी ।' सूरदासजी कहते हैं कि श्याम और बलराम दोनों भाई गायोंको पूछते हुए (कि वे किधर गयी हैं ?)चले जा रहे हैं ।