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टेर रहा सागर / अज्ञेय

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     जब-जब सागर में मछली तड़पी-
     तब-तब हम ने उस की गहराई को जाना।
     जब-जब उल्का गिरा टूट कर-गिरा कहाँ?-

     हम ने सूने को अन्तहीन पहचाना। जो है, वह है,
     रहस्य अज्ञेय यही ‘है’ ही है अपने-आप :
     जो ‘होता’ है, उस का होना ही
     जिसे जानना हम कहते

     उस की मर्यादा, माप।
     जो है, वह अन्तहीन
     घेरे हैं उस को जिस में
     जो ‘होता’ है होता है,

     जिस में ज्ञान हमारा अर्थ टोहता, पाता,
     बल खाता टटोलता बढ़ता है, खोता है।
     अर्थ हमारा जितना है, सागर में नहीं
     हमारी मछली में है

     सभी दिशा में सागर जिस को घेर रहा है।
     हम उसे नहीं, वह हम को टेर रहा है।

नयी दिल्ली, 10 मार्च, 1959