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टैगोर / गुलज़ार

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एक देहाती सर पे गुड की भेली बांधे,
लम्बे- चौडे एक मैदा से गुज़र रहा था
गुड की खुशबु सुनके भिन-भिन करती
एक छतरी सर पे मंडलाती थी
धूप चढ़ती और सूरज की गर्मी पहुची तो
गुड की भेली बहने लगी

मासूम देहाती हैरा था
माथे से मीठे-मीठे कतरे गिरते थे
और वो जीभ से चाट रहा था!

मै देहाती.........
मेरे सर पर ये टैगोर की कविता की भेली किसने रख दी!