टोकियो में एक दिन / रमेश क्षितिज / राजकुमार श्रेष्ठ
कल मैं होऊँगा नहीं तुम्हारे शहर में
लौट जाऊँगा अपने देश जैसे लौट जाती है हवा
हौले से छूकर चेरी के फूल
जैसे लौट जाती हैं लहरें साहिलों से
कि वैसे जैसे लौटते हैं साँझ में परिन्दे अपने घोंसले में
लौटते हुए ले जाऊँगा मैं
नवम्बर के एक दर्जन दिनों में बुने
हस्तकला-सी यादों के सोवेनियर
हार्दिकता का गुलाब और एक प्रेम गीत
अभी काँच के टूटने-सा एहसास है सीने पर
मानो कि बाँसुरी की धुन-सी आवाज़ में कह रहा है कोई
दूर नेपथ्य से
सायोनारा !!! मेरे महबूब सायोनारा !!! सायो ! ना ! रा !!!
घर पहुँचकर भी आधा तो छूट जाऊँगा मैं यहीं
माउण्ट फुजि के अगल-बगल, समुद्र के किनारे
या नारिता एअरपोर्ट के आसपास कहीं
लौटकर जाने वाला मैं
लेते हुए जाऊँगा जापानी आँखों के बिम्ब
सिंगापुरिया आँसू या थाई हँसी की तस्वीर
लोगों के बीच आपसी प्यार ही तो है स्वर्ग
जो कि मैं छोड़ गया होऊँगा यहाँ
उसे प्यार से महफ़ूज रखना – मेरे प्यारे दोस्त !
मूल नेपाली भाषा से अनुवाद : राजकुमार श्रेष्ठ