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टोपी / भोला पंडित प्रणयी

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देखिए-
मेरे ख़ानदान में
किसी ने टोपी नहीं पहनी है
तो, मैं भी नहीं पहनता था ।

लेकिन, उस दिन
शेरो-शायरी में अव्वल आने पर
‘दर्पण-सोसायटी’ ने मुझे
शॉल और मख़मली टोपी से
नवाजा है ।

तो, अब उसकी इज़्ज़त की ख़ातिर
इसे अपने गंजे माथे पर पहन
कई गोष्ठियों में सुशोभित हो
कैमरे के फोकस में चहकता रहा हूँ...
सच पूछिए तो
बहुत बड़ा शायर हो गया हूँ ।

मुझे याद है-
स्कूली जीवन में काँग्रेसियों ने
मुझ जैसे छात्रों के माथे पर
गाँधी टोपी पहना
‘इंकलाब-ज़िंदाबाद’ नारे के साथ
गली-गली जुलूस निकलवाया था
फलस्वरूप,
टोपी की करामात से
मुल्क आज़ाद हुआ ।

टोपी गाँधी की हो या सुभाष,
नेहरू, शास्त्री या जयप्रकाश, अबुल कलाम की
टोपी की कीमत है,
यह सभी जानते
राजनीति में
कुर्सियों के कारण
टोपियाँ बदल जाती हैं या फिर गिर जाती हैं ।

अब मेरी टोपी नहीं गिरे
टोपी तो ताज है माथे का...।