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टोरस दुःखों के रंग और मैं / बुद्ध / नहा कर नही लौटा है बुद्ध

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उस वक़्त मैं टोरस में था
और टोरस मुझ में
रेखाएँ थीं वक्र या शायद
प्रसार था जाने कितने आयामों में
वहाँ दुःख नहीं नहीं था
इसलिए नहीं थे कई रंग

अक्षरों संख्याओं में वहाँ नहीं था कोई फ़र्क़
जैसे नहीं था फ़र्क़ सुबह और दोपहर में
या शाम और आखि़र पहर में

वहाँ से निकलते ही
मैं था चल रहा जुलूसों में राजपथों पर
टोरस और अपने दुःखों को समझा देर से
एक रात धीरे धीरे
यह सोच चैन से सोया मैं
एक नहीं फिर भी एक हैं
टोरस की ज़रूरत, दुःखों के रंग और मैं।